भागवत पुराण हिन्दुओं के अट्ठारह पुराणों में से एक है। इसे श्रीमद्भागवतम् या केवल भागवतम् भी कहते हैं। इसका मुख्य वर्ण्य विषय भक्ति योग है, जिसमें कृष्ण को सभी देवों का देव या स्वयं भगवान के रूप में चित्रित किया गया है। इसके अतिरिक्त इस पुराण में रस भाव की भक्ति का निरुपण भी किया गया है। परंपरागत तौर पर इस पुराण के रचयिता वेदव्यास को माना जाता है।
श्रीमद्भागवत भारतीय वाङ्मय का मुकुटमणि है। भगवान शुकदेव द्वारा महाराज परीक्षित को सुनाया गया भक्तिमार्ग तो मानो सोपान ही है। इसके प्रत्येक श्लोक में श्रीकृष्ण-प्रेम की सुगन्धि है। इसमें साधन-ज्ञान, सिद्धज्ञान, साधन-भक्ति, सिद्धा-भक्ति, मर्यादा-मार्ग, अनुग्रह-मार्ग, द्वैत, अद्वैत समन्वय के साथ प्रेरणादायी विविध उपाख्यानों का अद्भुत संग्रह है
परिचय
अष्टादश पुराणों में भागवत नितान्त महत्वपूर्ण तथा प्रख्यात पुराण है। पुराणों की गणना में भागवत अष्टम पुराण के रूप में परिगृहीत किया जाता है भागवत पुराण में महर्षि सूत जी उनके समक्ष प्रस्तुत साधुओं को एक कथा सुनाते हैं। साधु लोग उनसे विष्णु के विभिन्न अवतारों के बारे में प्रश्न पूछते हैं। सूत जी कहते हैं कि यह कथा उन्होने एक दूसरे ऋषि शुकदेव से सुनी थी। इसमें कुल बारह स्कन्ध हैं। प्रथम स्कन्ध में सभी अवतारों का सारांश रूप में वर्णन किया गया है।
श्रीमद्भागवत भक्तिरस तथा अध्यात्मज्ञान का समन्वय उपस्थित करता है। भागवत निगमकल्पतरु का स्वयंफल माना जाता है जिसे नैष्ठिक ब्रह्मचारी तथा ब्रह्मज्ञानी महर्षि शुक ने अपनी मधुर वाणी से संयुक्त कर अमृतमय बना डाला है।
श्रीमद्भाग्वतम् सर्व वेदान्त का सार है। उस रसामृत के पान से जो तृप्त हो गया है, उसे किसी अन्य जगह पर कोई रति नहीं हो सकती। (अर्थात उसे किसी अन्य वस्तु में आनन्द नहीं आ सकता।
‘विद्यावतां भागवते परीक्षा’ भागवत विद्वत्ता की कसौटी है और इसी कारण टीकासंपत्ति की दृष्टि से भी यह अतुलनीय है। विभिन्न वैष्णव संप्रदाय के विद्वानों ने अपने विशिष्ट मत की उपपत्ति तथा परिपुष्टि के निमित्त भागवत के ऊपर स्वसिद्धांतानुयायी व्याख्याओं का प्रणयन किया है
भागवत का आध्यात्मिक दृष्टिकोण अद्वैतवाद का है तथा साधनादृष्टि भक्ति की है। इस प्रकार अद्वैत के साथ भक्ति का सामरस्य भागवत की अपनी विशिष्टता है। इन्हीं कारणों से भागवत वाल्मीकीय रामायण तथा महाभारत के साथ संस्कृत की ‘उपजीव्य’ काव्यत्रयी के अन्तर्भूत माना जाता है।
संरचना
भागवत में 18 हजार श्लोक, 335 अध्याय तथा 12 स्कन्ध हैं। इसके विभिन्न स्कंधों में विष्णु के लीलावतारों का वर्णन बड़ी सुकुमार भाषा में किया गया है। परंतु भगवान् कृष्ण की ललित लीलाओं का विशद विवरण प्रस्तुत करनेवाला दशम स्कंध भागवत का हृदय है। रासपंचाध्यायी अध्यात्म तथा साहित्य उभय दृष्टियों से काव्यजगत् में एक अनूठी वस्तु है। वेणुगीत, गोपीगीत, युगलगीत , भ्रमरगीत ने भागवत को काव्य के उदात्त स्तर पर पहुँचा दिया है।
भागवत के १२ स्कन्द निम्नलिखित हैं-
प्रथम स्कन्ध – इसमें भक्तियोग और उससे उत्पन्न एवं उसे स्थिर रखने वाला वैराग्य का वर्णन किया गया है।
द्वितीय स्कन्ध – ब्रह्माण्ड की उत्त्पत्ति एवं उसमें विराट् पुरुष की स्थिति का स्वरूप।
तृतीय स्कन्ध – उद्धव द्वारा भगवान् का बाल चरित्र का वर्णन।
चतुर्थ स्कन्ध – राजर्षि ध्रुव एवं पृथु आदि का चरित्र।
पंचम स्कन्ध – समुद्र, पर्वत, नदी, पाताल, नरक आदि की स्थिति।
षष्ठ स्कन्ध – देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि के जन्म की कथा।
सप्तम स्कन्ध – हिरण्यकश्यिपु, हिरण्याक्ष के साथ प्रहलाद का चरित्र।
अष्टम स्कन्ध – गजेन्द्र मोक्ष, मन्वन्तर कथा, वामन अवतार
नवम स्कन्ध – राजवंशों का विवरण। श्रीराम की कथा।
दशम स्कन्ध – भगवान् श्रीकृष्ण की अनन्त लीलाएं।
एकादश स्कन्ध – यदु वंश का संहार।
द्वादश स्कन्ध – विभिन्न युगों तथा प्रलयों और भगवान् के उपांगों आदि का स्वरूप।
प्रथम स्कन्ध
प्रथम स्कन्ध मे कुन्ती और भीष्म से ‘भक्ति योग के बारे मे बताया गया य और ‘परीक्षित की कथा’ के माध्यम से ये बताया गया है कि एक मरते हुये व्यक्ति को क्या करना चाहिये? क्योकि ये प्रश्न केवल परीक्षित का नही, हम सब का है। क्योकि ‘सात दिन’ ही प्रत्येक जीव के पास है, आठवां दिन है ही नही, इन्ही सात दिन मे उसका जन्म होता है और इन्ही सात दिन मे मर जाता है।
द्वितीय स्कन्ध
द्वितीय स्कन्ध मे ‘योग-धारणा के द्वारा शरीर त्याग की विधि बराई गयी है, भगवान का ध्यान कैसे करना चाहिये उसके बारे बताया गया है।
तृतीय स्कन्ध
इसमे ‘कपिल-गीता’ का वर्णन है जिसमे ‘भक्ति का मर्म’ ‘काल की महिमा’ और देह-गेह मे आसक्त पुरुषों की ‘अधोगति’ का वर्णन मनुष्य योनि को प्राप्त हुये जीव की गति क्या होती है। केवल भक्ति से ही वह इन सब से छूटकर भगवान की और जा सकता है।
चतुर्थ स्कन्ध
इसमे यह बताया गया है कि यदि भक्ति सच्ची हो तो उम्र का बंधन नही होता ‘ध्रुव की कथा’ ने यही सिद्ध किया है। ‘पुरजनोपाख्यान’ मे इन्द्रियों की प्रबलता के बारे मे बताया गया है।
पंचम स्कन्ध
इसमे ‘भरत-चरित्र’ के माध्यम से यह बताया गया है कि भरतजी कैसे एक हिरण के मोह मे पडकर अपने तीन जन्म गवा देते है। ‘भवाटवी’ के प्रसंग में यह बताया गया है कि व्यक्ति अपनी इन्द्रियों के बस मे होकर कैसे अपनी दुर्गति करता है। ‘नरकों का वर्णन’ बताया गया है कि मरने के बाद व्यक्ति की अपने-अपने कर्मो के हिसाब से कैसे नरको की यातना भोजनी पडती है।
षष्ट स्कन्ध
षष्ट स्कन्ध मे भगवान ‘नाम की महिमा’ के सम्बन्ध मे ‘अजामिलोपाख्यान’ है, “नारायण कवच” का वर्णन है जिससे वृत्रासुर का वघ होता है, नारायण कवच वास्तव मे भगवान के विभिन्न नाम है जिसे धारण करने वाले व्यक्ति को कोई परास्त नही कर सकता। ‘पुंसवन विधि’ एक संस्कार है जिसके बारे मे बताया गया है।
सप्तम स्कन्ध
इसमे ‘प्रहलाद-चरित्र’ के माध्यम से बताया गया है कि हजारों मुसीबत आने पर भी भगवान का नाम न छूटे, यदि भगवान का बैरी पिता ही क्यों न हो तो उसे भी छोड देना चाहिये। मानव-धर्म, वर्ण-धर्म, स्त्री-धर्म, ब्रह्मचर्य गृहस्थ और वानप्रस्थ आश्रमो के नियम का कैसे पालन करना चाहिये, इसका निरुपण है। कर्म व्यक्ति को कैसे करना चाहिये, यहि इस स्कन्ध का सार है।
अष्टम स्कन्ध
भगवान कैसे भक्त के चरण पकडे हुये व्यक्ति का पहले और बाद मे भक्त का उद्धार करते है यह ‘गजेन्द्र-गाह कथा’ के माध्यम से बताया गया है। ‘समुद्र मंथन’, ‘मोहिनी अवतार’, वामन अवतार’, के माध्यम से भगवान की भक्ति और लीलाओं का वर्णन है।
नवम स्कन्ध
नवम स्कन्ध मे ‘सूर्य-वंश’ और चन्द्र-वंश’ की कथाओं के माध्यम से उन राजाओं का वर्णन है जिनकी भक्ति के कारण भगवान ने उन्के वंश मे जन्म लिया। जिसका चरित्र सुनने मात्र से जीव पवित्र हो जाता है। यही इस स्कन्ध का सार है।
दशम स्कन्ध – पूर्वार्ध
भागवत का ‘हृदय’ दशम स्कन्ध है बडे-बडे संत महात्मा, भक्त के प्राण है यह दशम स्कन्ध, भगवान अजन्मा है, उनका न जन्म होता है न मृत्यु, श्री कृष्ण का तो केवल ‘प्राकट्य’ होता है, भगवान का प्राकट्य किसके जीवन मे, और क्यों होता है, किस तरह के भक्त भगवान को प्रिय है, भक्तो पर कृपा करने के लिये, उन्ही की ‘पूजा – पद्धति’ स्वीकार करने के लिये, चाहे जैसे भी पद्धति हो, के लिये ही भगवान का प्राकट्य हुआ, उनकी सारी लीलाये, केवल अपने भक्तो के लिये थी |
जिस-जिस भक्त ने उद्धार चाहा, वह राक्षस बनकर उनके सामने आता गया और जिसने उनके साथ क्रिडा करनी चाही वह भक्त, सखा, गोपी, के माध्यम से सामने आते गये, उद्देश्य केवल एक था – ‘श्री कृष्ण की प्राप्ति’ भगवान की इन्ही ‘दिव्य लीलाओ का वर्णन’ इस स्कन्ध मे है जहां ‘पूतना मोक्ष’ उखल बंधन’ चीर हरण’ ‘ गोवर्धन’ जैसी दिव्य लीला और रास, महारास, गोपीगीत तो दिवाति दिव्य लीलायें है। इन दिव्य लीलाओ का श्रवण, चिंतन, मनन बस यही जीवन का सार’ है।
दशम स्कन्ध – उत्तरार्ध
इसमे भगवान की ‘ऎश्वर्य’ लीला’ का वर्णन है जहां भगवान ने बांसुरी छोडकर सुदर्शन चक्र धारण किया उनकी कर्मभूमि, नित्यचर्या, गृहस्थ, का बडा ही अनुपम वर्णन है।
एकादश स्कन्ध
इसमे भगवान ने अपने ही यदुवंश को ऋषियों का श्राप लगाकर यह बताया की गलती चाहे कोई भी करे मेरे अपने भी उसको अपनी करनी का फ़ल भोगना पडेगा, भगवान की माया बडी प्रबल है उससे पार होने के उपाय केवल भगवान की भक्ति है, यही इस स्कन्ध का सार है। अवधूतोपख्यान – 24 गुरुओं की कथा शिक्षायें है।
द्वादश स्कन्ध
इसमे कलियुग के दोषों से बचने के उपाये – केवल ‘नामसंकीर्तन’ है। मृत्यु तो परीक्षित जी को आई ही नही क्योकि उन्होने उसके पहले ही समाधि लगाकर स्वयं को भगवान मे लीन कर दिया था। उनकी परमगति हुई क्योकि इस भागवत रूपी अमृत का पान कर लिया हो उसे मृत्यु कैसे आ सकती है।
भागवत पुराण कलिकाल में सभी पुराण में सर्वाधिक आदरणीय पुराण में से एक है, हमेशा से भागवत पुराण कथा हिन्दू समाज की धार्मिक, सामाजिक और लौकिक मर्यादाओं की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता आ रहा हैं। यह वैष्णव सम्प्रदाय का प्रमुख ग्रन्थ है। भागवत पुराण में वेदों, उपनिषदों तथा दर्शन शास्त्र के गूढ़ एवं रहस्यमय विषयों को अत्यन्त सरलता के साथ निरूपित किया गया है। इसे भारतीय धर्म और संस्कृति का विश्वकोश कहना अधिक समीचीन होगा।श्रीमद् भागवत कथा में सकाम कर्म, निष्काम कर्म, ज्ञान साधना, सिद्धि साधना, भक्ति, अनुग्रह, मर्यादा, द्वैत-अद्वैत, द्वैताद्वैत, निर्गुण-सगुण तथा व्यक्त-अव्यक्त रहस्यों का समन्वय उपलब्ध होता है। ‘श्रीमद्भागवत पुराण वर्णन की विशदता और उदात्त काव्य-रमणीयता से ओतप्रोत है। यह विद्या का अक्षय भण्डार है।
यह पुराण सभी प्रकार के कल्याण देने वाला तथा त्रय ताप-आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक आदि का शमन करता है। ज्ञान, भक्ति और वैरागय का यह महान ग्रन्थ है। भागवत पुराण में बारह स्कन्ध हैं, जिनमें विष्णु के अवतारों का ही वर्णन है। नैमिषारण्य में शौनकादि ऋषियों की प्रार्थना पर लोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा सूत जी ने इस पुराण के माध्यम से श्रीकृ‘श्रीमद्भागवत पुराण’ में बार-बार श्रीकृष्ण के ईश्वरीय और अलौकिक रूप का ही वर्णन किया गया है। पुराणों के लक्षणों में प्राय: पाँच विषयों का उल्लेख किया गया है, किन्तु इसमें दस विषयों-सर्ग-विसर्ग, स्थान, पोषण, ऊति, मन्वन्तर, ईशानुकथा, निरोध, मुक्ति और आश्रय का वर्णन प्राप्त होता है।
श्रीमद् भागवत कथा पुराण की सप्ताह श्रवण विधि –
श्रीमद् भागवत कथा पुराण का आयोजन प्रायः सभी लोगो के सहयोग और उनके धन के द्वारा ही होता है। सबसे पहले किसी विद्वान ज्योतिषी को बुलाकर शुभ मुहूर्त के बारे में पूछना चाहिए। फिर जिस प्रकार एक गरीब कन्या की विवाह के लिए धन एकत्रित किया जाता है वैसे ही सभी लोगो का सहयोग लेना चाहिए।
भागवत कथा का मुहूर्त –
श्रीमद् भागवत कथा पुराण का आयोजन भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीष, आषाढ़ और श्रावण के महीने श्रेष्ठ होते है। इन महीनो में कथा सुनने से मोक्ष की प्राप्ति आसान हो जाती है।
श्रीमद् भागवत कथा पुराण में सबका सहयोग –
इस आयोजन में ऐसे लोगो को शामिल करना चाहिए जो इस आयोजन के लिए अति उत्साही हो। फिर उन्ही लोगो की सहायता से जितने लोगो को सूचित कर सकते है ज्यादा से ज्यादा करे और उन्हें सपरिवार कथा स्थल पर पधारने के लिए अनुरोध करे। इसमें चारो वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के साथ साथ स्त्रियों को भी बुलाये और उनके बैठने की उचित व्यवस्था करे। उन वैष्णव, हरिकीर्तन के प्रेम, और साधु सन्तु को विशेष तौर पर बुलाये जो इसके लिए लालायित रहते है। उनके पास श्रीमद् भागवत कथा पुराण का यह निमंत्रण पत्र अवश्य भेजे।
श्रीमद् भागवत कथा पुराण का स्थान –
श्रीमद् भागवत कथा पुराण का श्रवण अगर किसी तीर्थ स्थान, वन में, तथा अपने घर जहाँ लम्बा चौड़ा मैदान हो, पर अत्यंत शुभ माना गया है। भूभि खोजने के बाद वहाँ साफ सफाई करे। आस पास पुष्पोंऔर तुलसी के पौधे लगाए। जगह जगह पर चौक पूरे, लेपन करे।
श्रीमद् भागवत पूजन विधि –
मुख्य द्वार पर केले के खम्वो का ऊँचा मंडप अवश्य बनाये। फिर सब और फल, फूल और आम पत्रों की माला, झंडियों से उस क्षेत्र को सजाये। ठीक उसी तरह से जैसे पुत्री के विवाह में सजाते है। क्युकी यहाँ श्री भगवान् के साथ साथ देवता भी पधारते है।
श्रीमद् भागवत कथा के नियम –
आगे की और जहाँ साधु संतो के बैठने की व्यवस्था होती है उसके आगे एक दिव्य सिहासन का प्रवन्ध करे। यदि वक्ता का मुख उत्तर की तरफ हो तो मुख्य यजमान जो परीक्षित रूप बनता है उसे पूर्व की तरफ मुख करके बैठना चाहिए।
जो वेद शास्त्र की स्पष्ट व्याख्या करने में समर्थ हो। तथा कठिन बातों को सरल दृष्टांत के द्वारा समझा सके। विवेकशील और नि:स्पृह हो, ऐसे विरक्त ब्राह्मण को ही वक्ता बनाना चाहिए।
कथा-प्रारम्भके दिनसे एक दिन पूर्व व्रत ग्रहण लेना चाहिये। तथा अरुणोदयके समय शौचसे निवृत्त होकर अच्छी तरह स्नान करे और संध्यादि अपने नित्यकर्मो कों संक्षेप से समाप्त करके कथा के विघ्नों की निर्वत्ति के लिये गणेशजीका पूजन करें। तदनन्तर पितृगण का तर्पण कर पूर्व पापोंकी शुद्धिके लिये प्रायश्चित्त करे और एक मण्डल बनाकर उसमें श्रीहरिको स्थापित करे
फिर भगवान् श्रीकृष्ण को लक्ष्य करके मन्त्रोच्चारणपूर्वक क्रमशः षोडशोपचारविधिसे पूजन करे और उसके पश्चात् प्रदक्षिणा तथा नमस्कारादि कर इस प्रकार स्तुति करे.
हे “करुणानिधान ! मैं संसार-सागरमें डूबा हुआ और बड़ा दीन हूँ। मुझे मोहरूपी ग्राह ने मुझे पकड़ रखा है। आप इस संसार-सागरसे मेरा उद्धार कीजिये “।
इसके पश्चात् धूप-दीप आदि सामग्रियोंसे श्रीमद्धागवतकी भी बड़े उत्साह और विधि पूर्वक और विधि -विधानसे पूजा करे। फिर पुस्तक के आगे नारियल रखकर नमस्कार करें और प्रसन्नच्तिसे इस प्रकार स्तुति करे –
“श्रीमद्भागवतके रूपमें आप साक्षात् श्रीकृष्णचन्द्र ही विराजमान हैं। नाथ ! मैंने भवसागरसे छुटकारा पाने के लिये आपको शरण ली है। मेरा यह मनोरथ आप बिना किसी विघ्न-बाधा के साड्रोपाड़ पूरा करें। हे केशव ! मैं आपका दास हूँ
इस प्रकार दीन बचन कहकर फिर वक्ता का पूजन करे। उसे सुन्दर वस्त्रो से विभूषित करें और फिर पूजाके पश्चात् उसकी इस प्रकार स्तुति करे–
“शुकस्वरूप भगवन् ! आप समझाने की कला में कुशल और सब शास्त्रों में विद्वान और पारंगत हैं; कृपया इस कथा को प्रकाशित करके मेरा अज्ञान दूर करें!
फिर अपने कल्याण के लिये प्रसन्नता पूर्वक उसके सामने नियम ग्रहण करे और सात दिनों तक यथाशक्ति उसका पालन करे, कथा में विघ्न न हो, इसके लिये पाँच ब्राह्मणों कों और बरण करे; वे द्वादशाक्षर मन्त्र द्वारा भगवान के नामों का जप करें, फिर ब्राह्मण, अन्य विष्णु भक्त एवं कीर्तन करने वालो को नमस्कार करके उनकी पूजा करें और उनकी आज्ञा पाकर स्वयं भी आसान ग्रहण करे।
बुद्धिमान् वक्ता को चाहिये कि साढ़े तीन पहर तक मध्यम स्वर से अच्छी तरह कथा वांचे , कथा के प्रसंग के अनुसार साधु, संतो और वैष्णवों को. भगवानके गुणों का कीर्तन करना चाहिये
कथाके समय मल-मूत्र के वेग को काबू में रखने के लिये अल्पाहार सुखकारी होता है; इसलिये श्रोता केवल एक ही समय हल्का भोजन करे, यदि शक्ति हो तो सातों दिन निराहार या उपवास रहकर कथा सुने अथवा केवल घी या दूध पीकर सुखपूर्वक श्रवण करे अथवा फलाहार या एक समय हो भोजन करे। यदि उपवास से श्रवण में बाधा पहुँचती हो तो वह किसी काम का नहीं
सनकादि ऋषि कहते है – नारदजी ! नियम से सप्ताह कथा सुनने वाले पुरुषो के नियम भी सुनिये।
विष्णुभक्त की दीक्षा से रहित पुरुष कथा श्रवण का अधिकारी नहीं है
जो पुरुष नियम से कथा सुने, उसे ब्रह्मचर्यसे रहना, भूमिपर सोना और नित्यप्रति कथा समाप्त होने पर पत्तल में भोजन करना चाहिये
दाल, मधु, तेल, गरिष्ठ अन्न, भावदूषित पदार्थ और बासी अन्न, इनका उसे सर्वदा ही त्याग करना चाहिये
काम, क्रोध, मद, मान, मत्सर, लोभ, दम्भ, मोह और द्वेष को तो अपने पास भी नहीं फटकने देना चाहिये
वह पुरुष वेद, वैष्णव, ब्राह्मण, गुरु, गोसेवक तथा स्त्री, राजा, और अन्य महापुरुषों की निंदा से बचना चाहिए।
हमेशा सत्य, शौंच, दया, मौन, सरलता, विनय और उदारता का वर्ताव करना चाहिए।
धनहीन, क्षयरोगी, किसी अन्य रोगसे पीड़ित, भाग्यहीन, पापी, पुत्रहींन और मुमुक्षु भी यह कथा श्रवण करे।
जिस स्त्री का रजोदर्शन रुक गया हो, जिसके एक ही संतान होकर रह गयी हो, जो बाँझ हो, जिसकी संतान होकर मर जाती हो अथवा जिसका गर्भ गिर जाता हो, वह यत्रपूर्वक इस कथाको सुने। ये सब यदि विधिवत् कथा सुनें तो इन्हें अक्षय फल की प्राप्ति हो सकती है। यह अत्युत्तम दिव्य कथा करोड़ों यज्ञों का फल देने वाली है
इस प्रकार इस ब्रत की विधियों का पालन करके फिर उद्यापन करे। जिन्हे इसके विशेष फल की इच्छा हो, वे जन्माष्टमी व्रत के समान हो इस कथा का उद्यापन करें। किन्तु जो भगवानके अकिच्चन भक्त हैं, उनके लिये उद्यापन का कोई आग्रह नहीं है। वे श्रवणसे ही पवित्र हैं; क्योंकि वे तो निष्काम भगवद्धक्त हैं।
इस प्रकार जब सप्ताहयज्ञ समाप्त हो जाय, तब श्रोताओं को अत्यन्त भक्तिपूर्वक पुस्तक और वक्ता की पूजा करनी चाहिये।
फिर वक्ता श्रोताओं को प्रसाद, तुलसी और प्रसादी मालाएँ दे तथा सब लोग मृदंग और झाँझ की मनोहर ध्वनि से सुन्दर कीर्तन करें।
जय-जयकार, नमस्कार और शक्गुध्वनिका घोष कराये, कथा पश्चात ब्राह्मण और याचको को धन और अन्न दे।
श्रोता विरक्त हो तो कर्म की शान्तिके लिये दूसरे दिन गीतापाठ करे; गृहस्थ हो तो हवन करें। उस हवन में दशमस्कथ का एक-एक श्लोक पढ़कर विधिपूर्वक खीर, मधु, घृत, तिल और अन्नादि सामग्रियोंसे आहृति दे।
या फिर एकाग्र चित्त से गायत्री महामंत्र का जाप करे, क्युकी गायत्री महामंत्र भी श्रीमदभागवत कथा रूप है।
फिर बारह ब्राह्मणों को खीर और मधु आदि उत्तम-उत्तम पदार्थ खिलाये तथा व्रत की पूर्ति के लिये गौदान और सुवर्णका दान करे।सामर्थ्य हो तो तीन तोले सोने का एक सिंहासन बनवाये, उस पर सुन्दर अक्षरो मे लिखी हुई श्रोमद्भागवत की पोथी रखकर उसकी आबाहनादि विविध उपचारोंसे पूजा करे और फिर जितेन्द्रिय आचार्य को उसका वस्त्र, आभूषण एवं गन्धादिसे पूजकर दक्षिणा के सहित समर्पण कर दे। श्रीमद्धागवत से भोग और मोक्ष दोनों ही हाथ लग जाते हैं
शुकदेव जी राजा परीक्षित को, गोकर्ण ने धुंधकारी को, और सनकादि ऋषि ने नारद को किस किस समय यह ग्रन्थ सुनाया?
द्वापर युग में जब भगवान् कृष्ण अपने धाम बैकुंठ को वापस चले गए तो फिर उसके 30 साल बाद पृथ्वी पर कलयुग का आगमन हुआ। कलयुग ने राजा परीक्षित से अपने लिए जगह मांगी थी, फिर राजा परीक्षित कलयुग के वशीभूत होकर एक पाप कर देते है, जिससे उन्हें श्राप मिलता है। उस श्राप से मुक्ति के लिए श्री शुकदेव महाराज ने पहली बार भाद्रपद मास की शुक्ला नवमी को राजा परीक्षित को श्रीमद भागवत कथा सुनाना आरम्भ किया था।
इसके बाद
राजा परीक्षित के कथा सुनने के बाद, अर्थात कलयुग के 200 वर्ष बीत जाने के बाद आषाढ़ मास की शुक्ला नवमी पर गोकर्ण जी ने ये कथा अपने भाई धुंधकारी को सुनाई थी। जो अपने बुरे कर्मो से प्रेत बन गया था।
इसके बाद
कलयुग के 30 वर्ष और बीत जाने पर जब श्रीनारद तीनो लोको का भ्रमण करते हुए पृथ्वी पर यमुना तट से निकले तो उन्होंने भक्ति को उसके पुत्र ज्ञान और वैराग्य के साथ अचेत अवस्था में यमुना तट पर देखा। फिर उनके उद्धार के लिए कार्तिक शुक्ल नवमी को सनकादि ऋषि ने नारद और भक्ति के पुत्रो को यमुना के तट पर यह कथा सुनाई थी।
कलयुग में भागवत कथा हर रोग की रामवाण औषधि है। संत जानो इस कथा को बड़े ध्यान से सुनो, यह श्रीकृष्ण को अत्यंत प्रिय, सम्पूर्ण पापो को नाश करने वाली है, और भक्ति को बढ़ने वाली है। श्रीमद् भागवत की कथा सुनने से भक्ति प्राप्त होती है। जिससे ज्ञान और वैराग्य भी प्राप्त होते है जो सीधा प्रभु की शरण में लेकर जाते है प्राणी को। जब व्यक्ति का सौभाग्य का उदय होता है या पूर्वजन्म के संस्कार होते है तब भागवत कथा सुनने को मिलती है। अन्यथा कथा आपके घर के पास होती रहे लेकिन आप उसमे भाग नहीं ले पाएंगे।
यह ग्रंथ साक्षात श्री भगवान का स्वरूप है। इसीलिए श्रद्धापूर्वक श्री भागवत की पूजा की जाती है। इसको पढ़ने और श्रवण करने से मोक्ष प्राप्त होता है।
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